Photographer | Writer | Traveller
Wednesday, March 18, 2020
क्या कहूँ कैसी है वो ?
Thursday, February 27, 2020
सूर्यकिरण..
Tuesday, February 4, 2020
रात के निशान....
मद्धम चलती वायु से पेड़ों के पत्ते हिलोरे ले रहे थे,
रौशनी पत्तों के जाल से छनती हुई उसकी आँखों पर पड़ी,
और सरसराहट की आवाज़ से उसकी नींद खुली,
लेकिन, पलकें आँखों पर से पर्दा हटाने को तैयार ना थी,
कुछ पल यूँ हीं अलसाते हुए गुज़र गए,
आखिर नींद की बेशर्मी हटी और,
आँखों पर से पलकों का पर्दा भी हट गया,
आखों के किनारे लगा कीचड़ साफ़ करते हुए उसने अंगड़ाई ली,
देखा तो बिस्तर पर थी वह नग्न और अकेली,
सर घूम रहा था और एक असहनीय दर्द से वह कराह उठी,
कमरा अस्त-व्यस्त था और अजीब सी गंध फैली हुई थी,
वह उठी और आँखें धोने बाथरूम गयी,
आईने में खुद को देखते हुए सोचने लगी,
आखिर बीती रात हुआ क्या था, क्या किया उसने बीती रात,
तभी उसे कमर पर एक घाव दिखा,
ना जाने ये घाव कैसे हुआ, पहले तो कभी ऐसा घाव हुआ नहीं था,
यही सोचते हुए वो फिर कमरे में आयी और देखा,
कि, चादर पर भी कुछ निशान पड़े हुए थे,
कुछ-कुछ हलके लाल रंग के,
कुछ समझ नहीं आ रहा था,
आखिर बीती रात हुआ क्या था, कैसे हैं ये रात के निशान,
तभी अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई,
वह फिर सोच में पड़ गयी, कौन होगा इस वक़्त दरवाज़े पर,
क्या वही होगा, जिसकी वजह ये पड़े हैं ये रात के निशान....
Tuesday, October 17, 2017
दीपावली का कबाड़।
देर शाम वह घर पहुंचा था। दीपावली की छुट्टियां थी। मुम्बई में एक बड़ी मल्टी नेशनल कंपनी में जॉब करता था। माता-पिता ने बड़ी खुशी से उसका स्वागत किया। उनका बेटा बड़े महीनों बाद घर आया था। चाय पीते हुए उसे घर के कामों और साफ-सफाई की लिस्ट थमा दी गयी। लड़के ने अनमने मन से वो लिस्ट देख भर ली। रात का खाना खाकर वो सो गया, माँ से कह कर कि, सुबह जल्दी उठा देना, घर की सफाई करनी है। सुबह के 9 बज चुके थे और लड़का अभी तक सो ही रहा था। माँ ने चार बार आवाज़ देकर उठाया। लड़का झल्ला कर उठा। मुँह धोकर चाय पीने लगा, तब देखा कि पिताजी तो काम पर लग चुके थे। अब लड़का भी काम करने के ये तैयार हो गया। घर के स्टोर रूम की सफाई शुरू कर दी। लड़के ने पिता से कहा, " क्या इतनी पुरानी चीज़ें संभाल कर रखी है? फेंको ये सब। कुछ काम की नहीं।" पिता ने कहा, "अरे उसमें हार्डवेयर का कुछ सामान है और भी कुछ कीमती चीज़ें है। एक बार देख लेना।" लड़का कहता है, " मुझे कुछ नहीं पता, मैं सब रद्दी में फेंक रहा हूँ।" कह कर फिर सफाई में लग गया। अचानक उसकी आंखें चमक उठी। उसे उसकी पुरानी बंदूक दिखी, जिससे वह बचपन मे दीपावली में खेलता था। साथ ही एक तसवीर भी दिखाई दी, जिसमें वह और उसकी बहन बंदूक एक दूसरे पर बंदूक ताने हुए खड़े दिख रहे थे। फिर उसे एक पुरानी ड्रिल मशीन दिखाई दी। घर की दीवारों में छेद ना हो पाने की वजह से पिताजी ड्रिल मशीन का प्रयोग किया करते थे। उसने वो मशीन पिताजी को दिखाई। पिताजी ने कहा, " बेटा, इसी से हमने यह घर संवारा है।" अब लड़के को उन पुरानी चीज़ों में रुचि आने लगी। बहुत सारी चीज़ें उसने अलग निकाल कर रख दी। और फिर सामान फेंकने चला गया। पिताजी के मन कुछ मसोस कर रह गए। अगले दिन दीपावली थी। उसने और बहन ने मिल कर पूजन की सारी तैयारी की और माता-पिता को बुलाया। पिताजी ने जब पूजा घर देखा तो उनके चेहरे पे हल्की सी मुस्कान आ गयी। पूजा घर में वही कुछ पुरानी चीजें साफ करके लड़के ने एक ओर रख दी थी। लड़के को देख पिताजी ने कहा, " बेटा, ये कबाड़ नहीं, यादें है। इन्हें का कभी मत छोड़ना। ये तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ेंगी।"
अवधूत चिन्तन श्री गुरुदेव दत्त।
Saturday, August 12, 2017
सपने - अपने या अपनों के
निकल पड़ा था घर से, छोड़ गली, नुक्कड़ और रास्ते,
गुज़रे थे जहाँ मेरे बचपन और जवानी के लम्हें,
एक नए शहर की ओर, जहाँ थे अजनबी और अनजाने रास्ते,
पूरे करने की ख़्वाहिश लिए, अपने सारे सपने,
इधर-उधर, यहाँ-वहाँ, भटकता मंज़िल पाने के लिये,
लेकिन हार क्यूँ जाती हर कोशिश, यह कोई ना जाने,
उदास रहता इस ग़म में,
कि सपने मेरे अब ना पूरे हो पाएंगे,
लेकिन भर जाता जोश से अगले ही पल में,
यह सोचकर, कैसे पूरे हो पाएंगे सपने अपनों के,
फिर एक नयी आशा के साथ कोशिश करता हूँ,
शक्ति पूरी लगाकर हर इम्तेहान देता हूँ,
कि आया वो दिन भी, जिसे देखना मै चाहता था,
मंज़िल की ओर मैंने पहला कदम बढ़ाया था,
अब बस यूँ ही कदम बढ़ाते जाना है,
सपने, अपने और अपनों के, पूरे करते जाना है..
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त....
Sunday, July 30, 2017
नन्हीं कोपल
एक नन्हीं सी कोपल (नवजात शिशु) फूटी है झाड़ियों (समाज) के बीच कहीं,
देखो, बचाना इसे कीटों (बलात्कारी) से,
टूट कर बिखर ना जाए ये कहीं,
भर देंगी जिंदगी तुम्हारी अनेक रंगों से,
ग़र संभाल सको इन्हें अपने दिलों में कहीं।
अवधूत चिंतन श्री गुरूदेव दत्त।
Wednesday, July 19, 2017
मासूम आंखें
खिड़की से झांकती ये मासूम आंखें,
कभी शरारती, तो कभी शरमाती,
कभी नम, तो कभी गुस्सैल,
बहुत कुछ संजों कर रखती है,
अपनी सपनों की दुनिया में,
हर ओर देखती है उत्सुकता से,
खोजती है है अपनापन हर जीव में,
समा लेती है, थोड़ी ख़ुशी और थोड़ा गम,
कभी थोड़ा रो कर, तो थोड़ा मुस्करा कर,
हर पल तैयार रहती है कुछ नया देखने को,
रहना चाहती है सदा हर चीज़ परखने को,
कह जाती है ज़माने से बहुत कुछ पलकें झपका कर,
सह जाती है सब कुछ बिना एक शब्द कहे,
अदम्य शक्ति है, साहस है इन आँखों में,
एक आँख और चाहिए इन्हे पहचानने को,
रहने दो इन्हें ज़िंदा; करने दो हर हसरत पूरी,
देश का भविष्य है ये; बहुत कीमती है ये मासूम आँखें..
अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त....